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शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

प्राचीन भारत में भी होता था घड़ी का उपयोग. अथर्ववेद में है ‘घटिका यंत्र’ का वर्णन


प्राचीन भारत में भी होता था घड़ी का उपयोग. अथर्ववेद में है ‘घटिका यंत्र’ का वर्णन


अकसर ये माना जाता है कि प्राचीन भारत में जो धार्मिक मान्यताएं रही हैं, वही आज प्राय: किसी खोज या आविष्कार का प्रतिनिधित्व करती रही हैं. आज भी हम एक ऐसे ही प्राचीन आविष्कार की बात करेंगे, जिसका नाता आज के आविष्कार से है. भारत में जितने भी धर्म हैं, या यूं कहें कि जिन धर्मों का उद्भव स्थल भारत रहा है, उन सभी धर्मों में किसी भी धार्मिक अनुष्ठान के लिए दिन और समय का काफ़ी महत्व होता है. लेकिन प्राचीन समय के लोगों के पास समय बताने का कोई विश्वसनीय तरीका नहीं था. माना जाता है कि उस समय धुप और छांव के आधार पर समय का अनुमान लगाया जाता था. इसको ही धूपघड़ी का नाम दिया गया. इन धूपघड़ियों का प्रचलन अत्यंत प्राचीन काल से होता आ रहा है. लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि जब बादल न हो तो इस घड़ियों से आप समय का अनुमान कैसे लगाएंगे.

भले ही आपके पास इसका जवाब न हो, लेकिन हमारे पूर्वजों के पास इसका जवाब ज़रूर है. प्राचीन काल में हमारे भारतीय पूर्वजों ने एक विशेष और अलग तरह की घड़ी को इज़ाद किया था, जो पानी के ऊपर आधारित थी, जिसे घटिका यंत्र कहा गया.

प्राचीन भारतीयों ने दिन और रात को पहले 60 भागों में बांट दिया था, जिसे 'घड़ी' कहा गया. इसके अलावा, रात और दिन को चार भागों में बांट दिया, जिन्हें 'पहर' कहा गया.

दरअसल, पानी में समय देखने के लिए सभी महत्वपूर्ण शहरों में लोगों के समूह को नियुक्त किया गया था, जिन्हें घरियालिस कहा गया. इनका काम समय बताना होता था. वैसे जलघड़ी में दो पात्रों का प्रयोग होता था. एक पात्र में पानी भर कर उसकी तली में छेद कर दिया जाता था. उसमें से थोड़ा-थोड़ा जल नियंत्रित बूंदों के रूप में नीचे रखे हुए दूसरे पात्र में गिरता था. इस पात्र में एकत्र जल की मात्रा नाप कर समय का अनुमान लगाया जाता था और यही एक अवधि के निश्चित समय का संकेत देता था.

जल घड़ी को धूप घड़ी के साथ ही सबसे पुराना समय मापक यंत्र के रूप में माना जाता है. हालांकि जब इसका पहली बार आविष्कार हुआ, यह इतना महत्वपूर्ण हो जाएगा, इसके बारे में कोई नहीं जानता था.

आज से हजारों साल पहले कटोरे के आकार की ये घड़ी का सबसे सरल फॉर्म में जलघड़ी के रूप में भारत, चीन और मिश्र आदि देशों में अस्तित्व में आयी.

इतिहासकारों का सुझाव है कि मोहनजोदड़ो से खुदाई में मिले बर्तनों से ऐसा प्रतीत हो रहा है कि उस काल में जलघड़ी का प्रयोग किया गया होगा, क्योंकि खुदाई में मिले बर्तन के नीचे वाले भाग में एक पतला-सा छेद देखने को मिला है.

लगभग 2nd Millennium BCE से प्राचीन भारत में जल घड़ी का उपयोग किया जाता था, इसका उल्लेख अथर्ववेद में भी किया गया है.

7वीं शताब्दी के दौरान जब चीनी यात्री ने भारत का दौरा किया था, तब उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय में जलघड़ी कैसे काम करती है, इसका विवरण दिया था. जल घड़ी में पानी की मात्रा मौसम के अनुसार बदलती रहती है. इस घड़ी को विश्वविद्यालय के स्टूडेंट्स द्वारा संचालित किया गया था.

जलघड़ी का विवरण जो सूर्य सिद्धांत में दिया गया है, Astrologer Varahimira के Pancasiddhantika में उसका विस्तार से वर्णन किया गया है. गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त ने Brahmasphutasiddhanta में जो काम किया है, वो सूर्य सिद्धांत से काफ़ी मिलता-जुलता है

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