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गुरुवार, 1 सितंबर 2016

8:11:00 pm

वेदों में छुपा है बरमूडा ट्राएंगल का असली सच, यह पढ़ें

वेदों में छुपा है बरमूडा ट्राएंगल का असली सच, यह पढ़ें

अटलांटिक महासागर के पश्‍चिमी हिस्‍से में स्‍थित बरमूडा ट्राएंगल कितना रहस्‍यमयी है, यह हम सभी जानते हैं। यहां से कई एयरक्राफ्ट और जहाज यहां से गायब हो चुके हैं लेकिन इसका पता आज तक कोई नहीं लगा पाया। लेकिन अगर हम वेदों पर नजर डालें तो इस रहस्‍य से जुड़े कुछ सुराग मिलते हैं जो बताते हैं कि आखिर कहां गायब होते हैं ये जहाज...

चुंबक की तरह खींच लेता है
बरमूडा ट्राएंगल के रहस्य को सुलझाने के कई दावे किए जा चुके हैं लेकिन अभी इसका पुख्‍ता प्रमाण कुछ भी नहीं मिला। अभी तक जितना सुनने में आया है कि बरमूडा ट्राएंगल के अंदर एक पिरामिड छुपा है, जो चुम्बक की तरह हर चीज़ को खींचता है। लगातार जहाजों के गायब होने के चलते तकरीबन 500 साल बाद इसे 'डेंजर रीजन' का नाम दिया गया। बताया तो यह भी जाता है कि साल 1492 में अमेरिका की यात्रा के दौरान कोलम्‍बस ने भी यहां पर कुछ चमकता हुआ देखा जिसके बाद उनका मैग्‍नेटिक कंपास खराब हो गया था। 

ऋग्वेद में लिखी है यह कहानी
लगभग 23000 सालों पहले लिखे गए ऋग्वेद के अस्य वामस्य में कहा गया है कि मंगल का जन्म धरती पर हुआ है। ऋग्वेद में लिखा है कि जब धरती ने मंगल को जन्म दिया, तब मंगल को उसकी मां से दूर कर दिया गया तब भूमि ने घायल होने के कारण अपना संतुलन खो दिया (और धरती अपनी धुरी पर घूमने लगी)। उस समय धरती को संभालने के लिए दैवीय वैद्य अश्विनी कुमार ने त्रिकोणीय आकार का लोहा उसके चोटहिल स्थान में लगा दिया और भूमि अपनी उसी अवस्था में रुक गई। यही कारण है कि पृथ्वी की धुरी एक विशेष कोण पर झुकी हुई है, धरती का यही स्थान बरमूडा ट्रायंगल है। सालों तक धरती में जमा होने के कारण त्रिकोणीय लोहा प्राकृतिक चुम्बक बन गया और इस तरह की घटनाएं होने लगीं।

अथर्व वेद का यह है कहना
अथर्व वेद में कई रत्नों का उल्लेख किया गया है, जिनमें से एक रत्न है दर्भा रत्न है। उच्च घनत्व वाला यह रत्न न्यूट्रॉन स्टार का एक बहुत ही छोटा रूप है। दर्भा रत्न का उच्च गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र, उच्च कोटि की एनर्जेटिक रेज़ का उत्त्सर्जन और हलचल वाली चीज़ों को नष्ट करना आदि गुणों को बरमूडा ट्रायंगल में होने वाली घटनाओं से जोड़ा जाता है। इस क्षेत्र में दर्भा रत्न जैसी परिस्थिति होने के कारण अधिक ऊर्जावान विद्युत चुंबकीय तरंगों का उत्त्सर्जन होता है और वायरलेस से निकलने वाली इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक तरंगों के इसके संपर्क में आते ही वायरलेस ख़राब हो जाता है और उस क्षेत्र में मौजूद हर चीज़ नष्ट हो जाती है।

8:10:00 pm

इसलिए भगवान शिव पहनते हैं शेर की खाल

 इसलिए भगवान शिव पहनते हैं शेर की खाल

तस्‍वीरों में हमने शिवजी को हमेशा से शेर की खाल पहने देखा है। भगवान शिव द्वारा शिव की खाल पहनने के पीछे शिव पुराण में एक बहुत ही रोचक कहानी बताई गई है जिसे जानकर आप हैरान रह जाएंगे। आइए जानते है कि आखिर क्‍या है वो कहानी..

सब हो रहे थे आकर्षित
शिव पुराण में भोले बाबा के द्वारा शेर की खाल पहनने के पीछे की कहानी का विविरण किया गया है। इसके मुताबिक एक बार शिव जी नग्‍न अवस्‍था में जंगलों में घूम रहे थे। जंगल में घूमते-घूमते वो एक गांव पहुंच गए जहां पर उनको इस अवस्‍था में देखकर सब चकित थे। गांववालों को समझ ही नहीं आ रहा था कि आखिर ये कौन है जो ऐसे बिना किसी वस्‍त्र के घूम रहा है। गांव की तमाम महिलाएं उनकी तरफ आकर्षित हाने लगी। इस बात से शिवजी अनजान थे और वो नग्‍न अवस्‍था में ही गांव में घूमते रहें।

क्रोधित हुए
शिवजी की इस हरकत को देखकर गांव में रहने वाले सभी साधु-संत नाराज हो गए और उन्‍होंने उनको सबक सिखाने का फैसला लिया। उन लोगों ने शिवजी के रास्ते में गड्डा कर दिया और उसमें एक शेर को उनको मारने के लिए छोड़ दिया। लेकिन उनकी इस चाल पर शिवजी ने पानी फेर दिया। उन्‍होंने कुछ ही मिनटो में शेर को मार ड़ाला और उसकी खाल को पहन लिया। इस तरह से शेर की खाल को पहनना बुराई पर अच्छाई का प्रतीक बन गया और शिवजी के साथ जुड़ गया। इस घटना के बाद गांववालों को इस बात का आभास हुआ कि ये कोई आम इंसान नहीं भगवान हैं।

8:09:00 pm

अगर सपने में दिखा ये तो धन लाभ होने वाला है

अगर सपने में दिखा ये तो धन लाभ होने वाला है

दिन भर काम करने के बाद जब आप बिस्‍तर पर सुकून के कुछ पल बिताने जाते हैं तो आप की आंखें कुछ सपने बुनती हैं। ऐसा माना जाता है कि अक्‍सर सपने सच भी हो जाते हैं। आज हम आप को कुछ ऐसे संकेतों के बारे मे बताने जा रहे हैं जो अगर आप के सपनो मे दिखें तो आप समझ जाइये कि आप का वक्‍त बदलने वाला है। आप के अच्‍छे दिन शुरु होने वाले हैं। ऐसा हम नही कह रहे हैं। 18 पुराणों मे से एक भव‌िष्य पुराण में यह बताया गया है क‌ि कुछ ऐसे सपने हैं ज‌िनका द‌िखना प्रचुर धन लाभ और ऐश्‍वर्य का संकेत होता है।
1- सूर्य दर्शन
स्‍वपन मे अगर आप को सूर्य का दर्शन हो तो समझ जाना चाहिए कि आप धनवान होने वाले हैं।

2- चन्द्र दर्शन
सपने मे अगर आप को चंन्‍द्रमा के दर्शन होते हैं तो आप को प्रचुर मात्रा मे धन लाभ मिलने वाला है।

3- बाल टूटते हुए देखना
अगर आप को सपने मे अपने टूटते हुए बाल दिखाई दें तो समझ जाना चाहिए ककी लक्ष्‍मी आप से प्रसन्‍न हो चुकी है।

4- लहराता ध्वज
स्‍वपन मे लहराता हुआ घ्‍वज या पताका दिखे तो समझ जाना चाहिए कि आप को ऐश्‍वर्य प्राप्‍त होने वाला है।

5- गाय को दूहते हुए देखना
गाय को पवित्र माना गया है। गाय मे 33 करोड़ देवताओं का निवास बताया गया है। अगर आप स्‍वपन मे गाय दूहते हुए दिखे तो आप धनवान होने वाले हैं।

6- सोने के गहने
स्‍वपन मे अगर को स्‍त्री आप को सोने के गहने पहने हुए नजर आती है तो समझ जाना चाहिए कि आप पर माता लक्ष्‍मी का कृपा होने वाल है।

7- दर्पण देखना
स्‍वपन मे दर्पण देखने को भी शुभ संकेत माना गया है। स्‍वपन मे दर्पण दिखे तो समझना चाहिए कि आप पर धनवर्षा होने वाल है।

8- खीर
सपने मे अगर आप को दूध की खीर दिखती है तो आप जल्‍द ही धनवान होने वाले है। स्‍वपन मे खीर को देखना शुभ माना जाता है।

8:08:00 pm

ओसामा बिन लादेन की बेटी ने हिन्दु धर्म अपनाया और कहा! दुनिया का सबसे बेकार व गंदा धर्म है इस्लाम

ओसामा बिन लादेन की बेटी ने हिन्दु धर्म अपनाया और कहा! दुनिया का सबसे बेकार व गंदा धर्म है इस्लाम
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   ओसामा की बेटी जोया खान ने मुंबई के आर्य समाज मंदिर में हिन्दु अभिनेता प्रदीप से शादी कर हिन्दु धर्म अपनाया तथा इस्लाम को दुनिया का सबसे गंदा धर्म बताते हुए विश्व की सभी मुस्लिम लडकियों से आह्वान किया है की वे अपने भविष्य और सम्मान को सुरक्षित रखने के लिए हिन्दु धर्म ही एक मात्र विकल्प है, इसलिए हिन्दु धर्म अपनाये!!
  इस विषय पर योगी आदित्यनाथ का कहना है की हिन्दु धर्म अपनाने वाले प्रत्येक इंसान को सुरक्षा, सम्मान, अपनत्व देने का वचन में पूरे विश्व हिन्दु युवा वाहिनी परिवार की तरफ से देता हूँ!!

8:06:00 pm

अगर इन गद्दारों ने अंग्रेजों का साथ न दिया होता, तो देश 1857 में ही आज़ाद हो गया होता


अगर इन गद्दारों ने अंग्रेजों का साथ न दिया होता, तो देश 1857 में ही आज़ाद हो गया होता

आज हम अधिकारों की बात करते हैं, जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करते हैं, नेताओं को काला झंडा दिखाते हैं, पर क्या ये सब तब भी मुमकिन था, जब देश गुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ होता? शायद ये तब इतना आसान नहीं होता. इतिहास की कई किताबें अंग्रेजों के जुल्मों-सितम से भरी हुई हैं, पर इसके लिए जितना अंग्रेज़ जिम्मेदार हैं, उतने ही वो हिंदुस्तानी भी जिम्मेदार हैं, जिन्होंने अपने फायदे के लिए अंग्रेजों का साथ दिया. आज हम आपको कुछ ऐसे ही लोगों के बारे में बता रहे हैं, जो पैदा तो हिंदुस्तान की मिट्टी में हुए पर अपने निजी फायदे के लिए मिट्टी से ही गद्दारी कर बैठे.

मीर जफ़र

गद्दारों की लिस्ट में मीर जफ़र सबसे पहला नाम है. बंगाल के नबाब सिराज-उद-दौला ने जब बंगाल की गद्दी संभाली थी, वो अंग्रेजों के इरादे भांप गए थे. अंग्रेजों की शक्ति पर लगाम लगाने के लिए उन्होंने कई सख्त कदम उठाये, जिससे ईस्ट इंडिया कंपनी में हड़कंप मच गया. अपनी खोई हुई ताकत को दोबारा हासिल करने के लिए उन्होंने सिराज-उद-दौला को युद्ध के लिए ललकारा, जिसके तहत प्लासी का युद्ध हुआ. इस युद्ध में नबाब के सेनापति मीर जफ़र ने गद्दारी करते हुए अंग्रेजों का साथ दिया. इसके पीछे मीर की महत्वाकांक्षा बंगाल का नबाब बनने के थी. इस युद्ध का अंत सिराज की हार के साथ हुआ और सत्ता मीर के हाथों में आ गई.

ज़मींदार

1857 की क्रांति के समय कई ज़मीदारों ने अंग्रेजों का साथ दिया और उन्हें सैन्य शक्ति के साथ-साथ ज़मीन और पैसा भी मुहैया करवाया. इसके पीछे ज़मीदारों को डर था कि अगर कहीं हिंदुस्तान आज़ाद हो गया तो उनकी ज़मीन और उनका शासन, दोनों हाथ से जा सकता है.

जयचन्द 

राजपूतों की गौरव गाथा तो आपने कई बार सुनी होगी पर क्या आप जानते हैं, राजपूतों में एक ऐसा भी गद्दार रहा है, जिसने भारत का काला इतिहास लिखा.

एक मशहूर कहावत है कि 'जयचंद तूने देश को बर्बाद कर दिया. गैरों को ला कर हिंद में आबाद कर दिया'.

ये कहावत कन्नौज के राजा जयचंद के लिए लिखी गई है. इतिहास की पुस्तकों के मुताबिक, पृथ्वीराज चौहान जयचन्द की बेटी संयोगिता से बेइंतहा मोहब्बत करते थे. अपनी मोहब्बत को पाने के लिए पृथ्वीराज चौहान ने जयचन्द से लोहा लिया और संयोगिता से शादी की. जयचन्द अपनी इस हार से बौखला गया और पृथ्वीराज चौहान से बदला लेने के मौके तलाशता रहा. उसे यह मौका मोहम्मद गोरी के रूप में मिला और उसने अफगानिस्तान के शासक मोहम्मद गोरी को भारत पर आक्रमण के लिए न्यौता भेजा, जिसकी वजह से तराइन के युद्ध हुआ और इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु हुई.

जयाजीराव सिंधिया

ग्वालियर राजघराने के जयाजीराव सिंधिया का नाम बेशक बड़ी तहज़ीब और सम्मान के साथ लिया जाता है. पर ये वही जयाजीराव सिंधिया है, जिन्होंने 1857 की क्रांति के समय अंग्रेजों का साथ दिया था और अपनी सेना को लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे के खिलाफ इस्तेमाल किया था. अंग्रेजों के प्रति उनकी वफादारी का ही फल था कि उन्हें बाद में 'Knights Grand Commander' के ख़िताब से नवाज़ा गया था.

महाराजा नरेंद्र सिंह (पटियाला)

1857 संग्राम के दौरान पंजाब में सिखों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाया. इस विद्रोह को कुचलने के लिए पटियाला के महाराज नरेंद्र सिंह, जींद के राजा सरूप सिंह, कपूरथला से राजा रणधीर सिंह ने अंग्रेज़ो का साथ दिया. इन लोगों ने सिख विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों को हथियार और सेना उपलब्ध कराई.

राय बहादुर जीवन लाल (नारनौल)

राय बहादुर जीवन लाल के पिता राजा रघुनाथ बहादुर, औरंगज़ेब के मुख्यमंत्री थे. इन्होंने अंग्रेजों से हाथ मिला कर मुग़ल शासन के खात्मे की कहानी लिखी. बाद में राय बहादुर भी अंग्रेजों के साथ मिल गए और भरतपुर रियासत के दरवाज़े अंग्रेजों के लिए खोल दिए.

8:04:00 pm

सोने की लंका को शिव जी ने बनवाया था और उसे हनुमान जी ने नहीं, बल्कि पार्वती जी ने जलाया था


सोने की लंका को शिव जी ने बनवाया था और उसे हनुमान जी ने नहीं, बल्कि पार्वती जी ने जलाया था


रामायण के बारे में सबको पता है. बहुत से लोगों ने पढ़ कर रामायण को जाना है, तो बहुत से लोगों ने धारावाहिक के माध्यम से. मैं भी रामानंद सागर के धारावाहिक रामायण को ही देखकर थोड़ा-बहुत जान पाया हूं. लेकिन हां, इंटरनेट ने रामायण के विभिन्न पहलुओं को जानने के लिए काफ़ी आसान बना दिया है. दरअसल, रामायण एक अथाह सागर की भांति है, जिसे जान पाना अत्यंत मुश्किल प्रतीत होता है. रामायण में न जाने कितने प्रसंग हैं, जिनके बारे में हमने कभी सुना ही नहीं है.

वैसे तो हम सभी को पता है कि रामायण में सोने की लंका को हनुमान जी ने जलाया था. लेकिन क्या आपको पता है, जिस सोने की लंका को आप रावण की लंका मानते हैं, वो आखिर असल में किसकी थी? क्या आपको पता है कि सोने की लंका को हनुमान जी ने नहीं, बल्कि किसी और ने जलाया था? अगर पौराणिक कथाओं की मानें तो कुछ ऐसी बातें हैं, जो आपको हैरानी में डाल सकती हैं. क्योंकि सोने की लंका को हनुमान जी ने नहीं, बल्कि माता पार्वती ने जलाया था.

क्यों आप आश्चर्य में पड़ गये न कि आखिर ये कैसे हो सकता है? लेकिन यह बात बिलकुल सत्य है. साथ ही सोने की लंका रावण की नहीं, बल्कि मां पार्वती की ही थी.

दरअसल, एक बार की बात है, लक्ष्मी जी और विष्णु जी जब भगवान शिव-पार्वती से मिलने के लिए कैलाश पर पधारे. कैलाश के वातावरण में अत्यधिक शीतलता होने के कारण लक्ष्मी जी ठंड से ठिठुरने लगीं. कैलाश पर ऐसा कोई महल भी नहीं था, जहां पर लक्ष्मी जी को थोड़ी राहत मिल पाती. लक्ष्मी ने पार्वती जी से व्यंग्य करते अथवा तंज कसते हुए कहा कि आप खुद एक राज कुमारी होते हुए इस तरह का जीवन कैसे व्यतीत कर सकती हैं. साथ ही जाते-जाते उन्होंने पार्वती और शिव जी को बैकुण्ठ आने का न्योता भी दिया.

मां लक्ष्मी के न्योते को स्वीकार करते हुए कुछ दिन बाद शिव और मां पार्वती एक साथ बैकुण्ठ धाम पहुंचे. बैकुण्ठ धाम के वैभव को देखकर पार्वती जी आश्चर्यचकित रह गईं. साथ ही उनके अंदर एक जलन वाली भावना भी जाग गई. इसे देखने के बाद उनकी लालसा बढ़ गई कि उनके पास भी एक वैभवशाली महल हो. जैसे ही मां पार्वती कैलाश पर पहुंची भगवान शिव से महल बनवाने का हठ करने लगीं.

उसी के बाद भगवान शिव ने पार्वती जी को भेंट करने के लिए कुबेर से कहलवा कर दुनिया का अद्वितीय महल बनवाया. यह महल पूर्णत: सोने का महल था.

लेकिन जब रावण की नज़र इस महल पर पड़ी तो, उसने सोचा कि इतना सुंदर और भव्य महल तो इस पूरे त्रिलोक में किसी के भी पास नहीं है. इसलिए अब यह महल मेरा होना चाहिए. सोने का महल पाने की इच्छा लेकर रावण ब्राह्मण का रूप धारण कर अपने इष्ट देव भगवान शिव शंकर के पास गया और भिक्षा में उनसे सोने के महल की मांग करने लगा.


भगवान शिव को भी पता था कि रावण उनका कितना बड़ा भक्त है. इसलिए भगवान शिव अच्छी तरह से जान गये कि उनका अत्यंत प्रिय भक्त रावण ब्राह्मण का रूप धारण कर उनसे महल की मांग कर रहा है. भगवान शिव को द्वार पर आए ब्राह्मण को खाली हाथ लौटाना धर्म विरुद्ध लगा, क्योंकि शास्त्रों में वर्णित है- आए हुए याचक को कभी भी खाली हाथ या भूखे नहीं जाने देना चाहिए एवं भूलकर भी अतिथि का अपमान कभी मत करो.

इसके बाद भोले शंकर ने खुशी-खुशी महल रावण को दान में दे दिया. जब ये बात मां पार्वती को पता चली, तो वो बेहद ही खिन्न हो गईं. मां पार्वती को यह बात नागवार गुजरी कि उनके सोने का महल किसी और का कैसे हो सकता है? हालांकि, भगवान शिव ने मां पार्वती को मनाने का बहुत प्रयास किया लेकिन मां पार्वती ने इसे अपने अपमान के रूप में ले लिया. इसलिए मां पार्वती ने प्रण लिया कि अगर यह सोने का महल मेरा नहीं हो सकता, तो इस त्रिलोक में किसी और का भी नहीं हो सकता.

बाद में यही सोने का महल रावण की लंका के नाम से जाना जाने लगा. मां पार्वती खुद अपने हाथों से इस महल को नष्ट करना चाहती थीं. इसलिए जब रामायण के पात्रों का चयन हो रहा था, तब भगवान शिव ने कहा था कि त्रेता युग में जब राम अवतार होगा, तो मैं उसमें हनुमान का रूप धारण करूंगा और सोने की लंका को नष्ट कर दूंगा. लेकिन मां पार्वती चाहती थीं वे खुद उसका नाश करें. इसलिए रामायण में जब सभी पात्रों का चयन हो गया और मां पार्वती की कोई भूमिका नहीं रही, जिससे वे अपने अपमान का बदला ले सकें तो भगवान शिव ने कहा कि आप अपनी इच्छा पूरी करने के लिए मेरी अर्थात हनुमान की पूंछ बन जाना. जिससे आप खुद उस लंका का दहन कर सकती हैं.


अंत में यही हुआ कि हनुमान जी ने सोने की लंका को अपनी पूंछ से जलाया. पूंछ के रूप में मां पार्वती थीं. इसलिए लंका दहन के बाद मां पार्वती के गुस्से को शांत करने के लिए हनुमान जी को अपनी पूंछ की अग्नि शांत करने के लिए सागर में जाना पड़ा.

अब इस पौराणिक कथा में कितनी सच्चाई है, ये मुझे नहीं पता. लेकिन इतना ज़रूर है कि रामायण को अलग-अलग तरीके से रेखांकित किया गया है. हो सकता है कि आप दूसरी जगह इस कहानी को पढ़ेंगे तो आपको कुछ और ही कथा पढ़ने को मिलेगी. वैसे भी जितनी ज़्यादा जानकारी होती है, इंसान उतने ही अच्छे से चीज़ों को समझता है. ये प्रसंग भी शिव के श्री हनुमान अवतार और लंकादहन का एक कारण माना जाता है.

7:20:00 pm

क्यों नहीं पढाया जाता की श्री गुरु अर्जन देव जी को जहाँगीर ने गर्म तवे पर बैठाया था

क्यों नहीं पढाया जाता की श्री गुरु अर्जन देव जी को जहाँगीर ने गर्म तवे पर बैठाया था




संजय द्विवेदी : श्री गुरु अर्जन देव जी को मुग़ल शाशक जहाँगीर ने गर्म  तवे पर बैठा दिया था और गरम तेल में पका कर हत्या कर दी थी , लेकिन आज के कुछ सिख भाई मुगलों की क्रूरता  भूल गए हैं और  आज भी गुरु अर्जन देव की आत्मा की शांति के लिए हम ठंडा शर्बत पिलाते हैं , लेकिन कुछ सिख भाई सच को नहीं जानते ।
श्री गुरु अर्जन देव सिक्खों के पाँचवें गुरु थे। ये 1581 ई. में गद्दी पर बैठे। श्री गुरु अर्जन देव का कई दृष्टियों से सिख गुरुओं में विशिष्ट स्थान है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब’ आज जिस रूप में उपलब्ध है, उसका संपादन इन्होंने ही किया था। श्री गुरु अर्जन देव सिक्खों के परम पूज्य चौथे गुरु रामदास के पुत्र थे।
श्री गुरु नानक से लेकर श्री गुरु रामदास तक के चार गुरुओं की वाणी के साथ-साथ उस समय के अन्य संत महात्माओं की वाणी को भी इन्होंने ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब’ में स्थान दिया।
श्री गुरु अर्जुन देव जी को शहीदों का सरताज कहा जाता है। सिख धर्म के पहले शहीद थे।
जागो सिख भाइयो
श्री गुरु अर्जुन देव जी को शहीदों का सरताज कहा जाता है। सिख धर्म के पहले शहीद थे।
भारतीय दशगुरु परम्परा के पंचम गुरु श्री गुरु अर्जुनदेव का जन्म 15 अप्रैल, 1563 ई. को हुआ। प्रथम सितंबर, 1581 को अठारह वर्ष की आयु में वे गुरु गद्दी पर विराजित हुए। 30 मई, 1606 को उन्होंने धर्म व सत्य की रक्षा के लिए 43 वर्ष की आयु में अपने प्राणों की आहुति दे दी।
श्री गुरु अर्जुनदेव जी की शहादत के समय दिल्ली में मध्य एशिया के मुगल वंश के का राज जहाँगीर था और उन्हें राजकीय कोप का ही शिकार होना पड़ा।  1605 में  जहांगीर गद्दी पर बैठा जो बहुत ही कट्टïर इस्लामिक विचारों वाला था। अपनी आत्मकथा ‘तुजुके जहांगीरी’ में उसने स्पष्ट लिखा है कि वह श्री गुरु अर्जुन देव जी के बढ़ रहे प्रभाव से बहुत दुखी था।
इसी दौरान जहांगीर का पुत्र खुसरो बगावत करके आगरा से पंजाब की ओर आ गया। जहांगीर को यह सूचना मिली थी कि गुरु अर्जुन देव जी ने खुसरो की मदद की है इसलिए उसने गुरु जी को गिरफ्तार करने के आदेश जारी कर दिए।
बाबर ने तो श्री गुरु नानक गुरुजी को भी कारागार में रखा था। लेकिन श्री गुरु नानकदेव जी तो पूरे देश में घूम-घूम कर हताश हुई जाति में नई प्राण चेतना फूंक दी।जहांगीर के अनुसार उनका परिवार मुरतजाखान के हवाले कर घरबार लूट लिया गया। इसके बाद गुरु जी ने शहीदी प्राप्त की। अनेक कष्ट झेलते हुए गुरु जी शांत रहे, उनका मन एक बार भी कष्टों से नहीं घबराया।
जहांगीर ने श्री गुरु अर्जुनदेव जी को मरवाने से पहले उन्हें अमानवीय यातानाएं दी। मसलन चार दिन तक भूखा रखा गया। ज्येष्ठ मास की तपती दोपहरियां में उन्हें तपते रेत पर बिठाया गया। उसके बाद खौलते पानी में रखा गया। परन्तु श्री गुरु अर्जुनदेव जी ने एक बार भी उफ तक नहीं की और इसे परमात्मा का विधन मानकर स्वीकार किया।
श्री गुरु अर्जुन देव जी को लाहौर में 30 मई 1606 ई. को भीषण गर्मी के दौरान ‘यासा’ के तहत लोहे की गर्म तवी पर बिठाकर शहीद कर दिया गया। यासा के अनुसार किसी व्यक्ति का रक्त धरती पर गिराए बिना उसे यातनाएं देकर शहीद कर दिया जाता है। गुरु जी के शीश पर गर्म-गर्म रेत डाली गई। जब गुरु जी का शरीर अग्नि के कारण बुरी तरह से जल गया तो आप जी को ठंडे पानी वाले रावी दरिया में नहाने के लिए भेजा गया जहां गुरुजी का पावन शरीर रावी में आलोप हो गया। गुरु अर्जुनदेव जी ने लोगों को विनम्र रहने का संदेश दिया।
आप विनम्रता के पुंज थे। कभी भी आपने किसी को दुर्वचन नहीं बोले। गुरबाणी में आप फर्माते हैं :
‘तेरा कीता जातो नाही मैनो जोग कीतोई॥
मै निरगुणिआरे को गुण नाही आपे तरस पयोई॥
तरस पइया मिहरामत होई सतगुर साजण मिलया॥
नानक नाम मिलै ता जीवां तनु मनु थीवै हरिया॥’
तपता तवा उनके शीतल स्वभाव के सामने सुखदाईबन गया। तपती रेत ने भी उनकी ज्ञाननिष्ठा भंग न कर पायी। गुरु जी ने प्रत्येक कष्ट हंसते-हंसते झेलकर यही अरदास की-
तेरा कीआ मीठा लागे॥ हरि नामु पदारथ नानक मांगे॥
जहांगीर द्वारा श्री गुरु अर्जुनदेव जी को दिए गए अमानवीय अत्याचार और अन्त में उनकी मृत्यु जहांगीर की इसी योजना का हिस्सा था। श्री गुरु अर्जुनदेव जी जहांगीर की असली योजना के अनुसार ‘इस्लाम के अन्दर’ तो क्या आते, इसलिए उन्होंने विरोचित शहादत के मार्ग का चयन किया।
इधर जहांगीर की आगे की तीसरी पीढ़ी या फिर मुगल वंश के बाबर की छठी पीढ़ी औरंगजेब तक पहुंची। उधर श्री गुरु नानक देव जी की दसवीं पीढ़ी थी। श्री गुरु गोविन्द सिंह तक पहुंची। यहां तक पहुंचते-पहुंचते ही श्री नानकदेव की दसवीं पीढ़ी ने मुगलवंश की नींव में डायनामाईट रख दिया और उसके नाश का इतिहास लिख दिया। संसार जानता है कि मुट्ठी भर मरजीवड़े सिंघ रूपी खालसा ने 700 साल पुराने विदेशी वंशजों को मुगल राज सहित सदा के लिए ठंडा कर दिया। 100 वर्ष बाद महाराजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में भारत ने पुनः स्वतंत्राता की सांस ली। शेष तो कल का इतिहास है, लेकिन इस पूरे संघर्षकाल में पंचम गुरु श्री गुरु अर्जुनदेव जी की शहादत सदा सर्वदा सूर्य के ताप की तरह प्रखर रहेगी।
आज कुछ सिख भाई भूल गए हैं की गुरु अर्जन देव जी को मुसलमानों ने कितनी यातनाए देकर शहीद किया था।
रोम रोम नतमस्तक
परंतु हृदय में अत्यंत ही क्षोभ है कि ऐसे देवपुरुष का इतिहास ना तो हमें कभी पढाया गया और ना ही कभी बताया गया…
लेकिन अब समय आ गया है कि हम मैकाले के षडयंत्र पूर्वक रचे गए झूठे और भ्रामक शिक्षा कुचक्र से बाहर निकले और अपनी स्वयं की, धर्माधारित शिक्षा व्यवस्था की स्थापना करें।
जिसमें अपने धर्म का अपने पूर्वजों का एवं अपने इष्ट का सम्मान हो, उनकी शौर्य गाथा को भारत का बच्चा – बच्चा जाने और उनके आदर्शों को अपनायें।
7:13:00 pm

छप्पड़ चीरी का ऐतिहासिक युध

छप्पड़ चीरी का ऐतिहासिक युध


सरहिन्द के सुबेदार वजी़द खान को सूचना मिली कि बंदा सिंह के नेतृत्व मे दल खालसा और माझा
क्षेत्रा का सिंघो का काफला आपस मे छप्पड़ चीरी नामक गांव में मिलने मे सफल हो गया है और वे सरहिन्द
की ओर आगे बढने वाले हैं। तो वह अपने नगर की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए, सिक्खों से लोहा लेने अपना
सैन्य बल लेकर छप्पड़ चीरी की ओर बढने लगा। दल खालसा ने वही मोर्चा बंदी प्रारम्भ कर दी। वज़ीद खान
की सेना ने आगे हाथी, उस के पीछे ऊंट, फिर घोड़ सवार और उस के पीछे तोपे व प्यादे ;सिपाहीद्ध। अंत मे
हैदरी झंडे के नीचे, गाज़ी जेहाद का नारा लगाते हुए चले आ रहे थे अनुमानतः इन सब की संख्या एक लाख
के लगभग थी। सरहिन्द नगर की छप्पड चीरी गांव से दूरी लगभग 20 मील है।
इध्र दल खालसा के सेनानायक जत्थेदार बंदा सिंह बहादुर ने अपनी सेना का पुनर्गठन कर के अपने
सहायक फतेह सिंह, कर्म सिंह, र्ध्म सिंह और आली सिंह को मालवा क्षेत्रा की सेना को विभाजित कर के उपसेना
नायक बनाया। माझा क्षेत्रा के सेना को विनोद सिंह और बाज सिंह की अध्यक्ष्ता मे ं मोर्चा बंदी करवा दी। एक
विशेष सैनिक टुकड़ी ;पलटनद्ध अपने पास संकट काल के लिए इन्दर सिंह की अध्यक्षता मे सुरक्षित रख ली
और स्वयं एक टीले ;टेकरीद्ध पर विराज कर यु( को प्रत्यक्ष दूरबीन से देखकर उचित निर्णय लेकर आदेश देने
लगे। दल खालसा के पास जो छः छोटे आकार की तोपे थी उन को भूमिगत मोर्चाे मंे स्थित कर के शाहबाज
सिंह को तोपखाने का सरदार नियुक्त किया। इन तोपों को चलाने के लिए बुंदेलखण्ड के विशेषज्ञ व्यक्तियों को
कार्यभार सौंपा गया। तोपचियों का मुख्य लक्ष्य, शत्राु सेना की तोपों को खदेड़ना और हाथियों को आगें न बढ़ने
देने का दिया गया, सब से पीछे नवसीखियें जवान रखे गये और उस के पीछे सुच्चा नंद के भतीजे गंडा मल
के एक हज़ार जवान थे ।
सूर्य की पहली किरण ध्रती पर पड़ते ही यु( प्रारम्भ हो गया। शाही सेना नाअरा-ए-तकबीर-
अल्लाह हू अकबर के नारे बुलंद करते हुए सिंघों के मोंर्चो पर टूट पडी़। दूसरी ओर से दल खालसा ने उत्तर में
फ्बोले सो निहाल, सत श्री अकालय् जय घोष कर के उत्तर दिया और छोटी तोंपों के मुंह खोल दिये। यह तोपे
भूमिगत अदृश्य मोर्चो में थी अंत इनकी मार ने शाही सेना की अगली पंक्ति उडा़ दी। बस फिर क्या था शाही
सेना भी अपनी असंख्य बडी़ तोपो का प्रयोग करने लगी। दल खालसा वृक्षों की आड़ में हो गया। जैसे ही शत्राु
सेना की तोपों की स्थिति स्पष्ट हुई शाहबाज सिंह के तोपचियों ने अपने अचूक निशानों से शत्राु सेना की तोपों
का सदा के लिए शांत करने का अभियान प्रारम्भ कर दिया जल्दी ही गोला-बारी बहुत ध्ीमी पड़ गई। क्योंकि
शत्राु सेना के तोपची अध्किांश मारे जा चुके थे। अब मुग़ल सेना ने हाथियों की कतार को सामने किया परन्तु
दल खालसा ने अपनी निधर््ारित नीति के अंतर्गत वही स्थिति रख कर हाथियों पर तोप के गोले बरसाए इस से
हाथियों में भगदड़ मच गई। इस बात का लाभ उठाते हुए घोड़ सवार सिंह शत्राु खेमे में घुसने में सफल हो गये
और हाथियों की कतार टूट गई। बस फिर क्या था? सिंघों ने लम्बे समय से हृदय में प्रतिशोध् की भावना जो
पाल रखी थी, उस अग्नि को ज्वाला बनाकर शत्राु पर टूट पडे़ घमासान का यु( हुआ। शाहीसेना केवल संख्या
के बल पर विजय की आशा लेकर लड़ रही थी, उन में से कोई भी मरना नहीं चाहता था जबकि दल खालसा
विजय अथवा शहीदी में से केवल एक की कामना रखते थे, अतः जल्दी ही मुग़ल फौजें केवल बचाव की लडाई
लड़ने लगे। देखते ही देखते शवों के चारों ओर ढेर दिखाई देने लगे। चारों तरफ मारो-मारो की आवाजें ही आ
रही थी। घायल जवान पानी-पानी चिल्ला रहे थे और दो घण्टों की गर्मी ने रणक्षेत्रा तपा दिया था। जैसे-जैसे
दोपहर होती गई जहादियों का दम टूटने लगा उन्हें जेहाद का नारा धेखा लगने लगा, इस प्रकार गा़जी ध्ीरे-ध्
ीरे पीछे खिसकने लगे। वह इतने हताश हुए कि मध्य दोपहरी तक सभी भाग खडे़ हुए। दल खालसे का मनोबल
बहुत उच्च स्तर पर था। वे मरना तो जानते थे, पीछे हटना नहीं। तभी गदद्ार सुच्चानंद के भतीजे गंडामल ने
जब खालसा दल मुग़लों पर भारी पड़ रहा था, तो अपने साथियों के साथ भागना शुरू कर दिया। इस से सिंघों
के पैर उखड़ने लगे क्योंकि कुछ नौसिखिए सैनिक भी गर्मी की परेशानी न झेलते हुए पीछे हटने लगे। यह
देखकर मुग़ल फौजियों की बाछें खिल उठी। इस समय अबदुल रहमान ने वजीद खान को सूचना भेजी फ्गंडामल
ब्रह्माण ने अपना इकरार पूरा कर दिखाया है, जहांपनाय्। इस पर वजीद खान ठहका मार के हंसा और कहने
लगा,फ्अब मरदूद बंदे की कुमक क्या करती है, बस देखना तो यहीं है। अब देरी न करो बाकी फौज भी
मैदान-ए-जंग में भेंज दो, इन्शा-अल्ला जीत हमारी ही होगी ।य्
दूसरी तरफ जत्थेदार बंदा सिंह और उसके संकट कालीन साथी अजीत सिंह यह दृश्य देख रहे थे।
अजीत सिंह ने आज्ञा मांगी फ्गंडामल और उस के सवारों को गद्दारी का इनाम दिया जायेय्। परन्तु बंदा सिंह
हंसकर कहने लगा फ्मैं यह पहले से ही जानता था खैर………..अब आप ताजा दम संकट कुमक लेकर विकट
परिस्थिियों में पडे़ सैनिकों का स्थान लोय् ।
अजीत सिंह तुरन्त आदेश का पालन करता हुआ वहां पहंुचा जहां सिंघों को कुछ पीछे हटना पड़ गया
था। फिर से घमासान यु( प्रारम्भ हो गया। मुग़लो की आशा के विपरीत सिंघों की ताजा दम कुमक ने रणक्षेत्रा
का पासा ही मोड़ दिया। सिंह फिर से आगे बढ़ने लगे। इस प्रकार यु( लड़ते हुए दोपहर ढलने लगी। जो मुग़ल
कुछ ही देर में अपनी जीत के अंदाजे लगा रहे थे। वह भूख-प्यास के मारे पीछे हटने लगे किन्तंु वह भी जानते
थे कि इस बार की हार उनके हाथ से सरहिन्द तो जायेगा हीऋ साथ में मृत्यु भी निश्चित ही है। अतः वह अपना
अंतिम दाव भी लगाना चाहते थे। इस बार वजीद खान ने अपना सभी कुछ दाव पर लगाकर फौज को ललकारा
और कहा -फ्चलो गा़जियों आगे बढ़ो और काफ़िरों को मार कर इस्लाम पर मंडरा रहे खतरे को हमेशा के लिए
खत्म कर दो। इस हल्ला शेरी से यु( एक बार फिर भड़क उठा। इस बार उपसेना नायक बाज सिंह, जत्थेदार
बंदा सिंह के पास पहुंचा और उसने बार-बार स्थिति पलटने की बात बताई। इस बार बंदा सिंह स्वयं उठा और
शेष संकट कालीन सेना लेकर यु( भूमि मे उतर गया। उसे देखकर दल खालसा में नई स्फूर्ति आ गई। फिर
से घमासान यु( होने लगा। इस समय सूर्यास्त होने में एक घण्टा शेष था। उपनायक बाज सिंह व फतेह सिंह
ने वजीद खान के हाथी को घेर लिया। सभी जानते थे कि यु( का परिणाम आखरी दाव में छिपा हुआ है, अतः
दोनांे ओर के सैनिक कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। सभी सैनिक एक-दूसरे से गुथम-गुथा होकर विजयी
होने की चाहत रखते थे।
ऐसे में बंदा सिंह ने अपने गुरूदेव श्री गुरू गोबिंद सिंह जी प्रदान वह बाण निकाला जो उसे संकट काल
सें प्रयोग करने के लिए दिया गया था। गुरूदेव जी ने उसे बताया था, वह बाण आत्मबल का प्रतीक है। इस के
प्रयोग पर समस्त अदृश्य शक्तियां तुम्हारी सहायता करेगी।
ऐसा ही हुआ देखते ही देखते वजीद खान मारा गया और शत्राु सेना के कुछ ही क्षणों में पैर उखड़ गये
और वे भागने लगे। इस समय का सिंहों ने भरपूर लाभ उठाया, उन्होंने तुरन्त मलेरकोटला के नवाब शेर मुहम्मद
खान तथा ख्वाजा अली को घेर लिया वे अकेले पड़ गये थे। उनकी सेना भागने में ही अपना भला समझ रही
थी। इन दोनों को भी बाज सिंह व फतेह सिंह ने रणभूमि में मुकाबले में मार गिराया। इनके मरते ही समस्त मुग़ल
सेना जान बचाती हुई सरहिन्द की ओर भाग गई। सिंघो ने उनका पीछा किया किन्तु जत्थेदार ने उन्हें तुरन्त
वापस आने का आदेश भेजा। उन का विचार था कि हमें समय की नजा़कत को ध्यान मे रखते हुए अपने घायलों
की सेवा पहले करनी चाहिए। उसके बाद जीते हुए सैनिकों की सामग्री कब्जे में लेना चाहिए। इस के बाद शहीदों
को सैनिक सम्मान के साथ अंतिम संस्कार उनकी रीति अनुसार करने चाहिए।
यह ऐतिहासिक विजय 12 मई सन् 1710 को दल खालसे को प्राप्त हुई। इस समय दल की कुल संख्या
70 हजार के लगभग थी। इस यु( में 30 हजार सिंह काम आये और लगभग 20 हजार घायल हुए। लगभग
यही स्थिति शत्राु पक्ष की भी थी। उनके गा़जी अध्किांश भाग गये थे। यु( सामग्री में सिंघांे को 45 बडी़ तोपे,
हाथी, घोडे़ व बंदूके बडी़ संख्या मे प्राप्त हुई ।
नवसिखिये सैनिक जो भाग गये थे। उनमें से अध्किांश लौट आये और जत्थेदार से क्षमा मांग कर दल
में पुनः सम्मिलित हो गये। जत्थेदार बंदा सिंह ने खालसे-दल का जल्दी से पुनर्गठन किया और सभी को सम्बोध्
न कर के कुछ आदेश सुनाये:-
1़ कोई भी सैनिक किसी निर्दोष व्यक्ति को पीड़ित नहीं करेगा ।
2. कोई भी महिला अथवा बच्चों पर अत्याचार व शोषण नहीं करेगा। केवल दुष्ट का दमन करना है और
गरीब की रक्षा करनी है। इसलिए किसी की धर्मिक भवन को क्षति नहीं पहुचानी है।
3. हमारा केवल लक्ष्य अपराध्यिों को दण्डित करना तथा दल खालसा को सुदृढ करने के लिए यथाशक्ति
उपाय है।
14 मई को दल खालसे ने सरहिन्द नगर पर आक्रमण कर दिया। उन्हांेने सूबे वजीद खान का शव साथ
में लिया और उस का प्रदर्शन करने लगे। इस बीच बजीद खान का बेटा समंुद खान सपरिवार बहुत सा ध्न लेकर
दिल्ली भाग गया। उसे देखते हुए नगर के कई अमीरों ने ऐसा ही किया क्योकि उन्हें ज्ञात था कि शत्राु सेना के
साथ अब मुकाबला हो नहीं सकता। अतः भागने में ही भलाई है। जन साधरण भी जानते थे कि दल खालसा
अब अवश्य ही सरहिन्द पर कब्जा करेगा।
उस समय फिर रक्तपात होना ही है अतः कुछ दिन के लिए नगर छोड़ जाने में ही भलाई है। इस प्रकार
दल खालसे के सरहिन्द पहुंचने से पहले ही नगर में भागम भाग हो रही थी। दल खालसा को सरहिन्द में प्रवेश
करने में एक छोटी सी झड़प करनी पड़ी। बस फिर आगे का मैदान साफ था। सिंघों ने वजीद खान का शव सरहिन्द
के किले के बाहर एक वृक्ष पर उल्टा लटका दिया, उसमें बदबू पड़ चुकी थी। अतः शव को पक्षी नौचने लगे।
किले में बची-खुची सेना आकी होकर बैठी थी। स्वाभाविक था वे करते भी क्या? उनके पास कोई चारा नही
था। दल खालसा ने हथियाई हुई तोपों से किले पर गोले दागे, घण्टे भर के प्रयत्न से किले में प्रवेश का मार्ग
बनाने में सफल हो गये। फिर हुई हाथों-हाथ शाही सैनिकों से लडा़ई। बंदा सिंह ने कह दिया फ्अडे़ सो झडे़, शरण
पडे़ सो नरेय् के महा वाक्य अनुसार दल खालसा को कार्य करना चाहिए। इस प्रकार बहुत से मुग़ल सिपाही मारे
गये। जिन्होने हथियार फैंक कर दल खालसा से पराजय स्वीकार कर लीऋ उनको यु( बन्दी बना लिया गया।
दल खालसा के सेना नायक बंदा सिंह ने विजय की घोषणा की और अपराध्यिों का चयन करने को
कहा। जिससे उन्हें उचित दण्ड़ दिया जा सके परन्तु कुछ सिंघो का मत था कि यह नगर गुरू शापित है अतः
इसे हमें नष्ट करना है। किन्तु बंदा सिंह इस बात पर सहमत नहीं हुआ। उनका कहना था कि इस प्रकार निर्दोष
लोग भी बिना कारण बहुत दुख झेलेगें जो कि खालसा दल अथवा गुरू मर्यादा के विरू( है। बंदा सिंह की बात
में दम था अतः सिंह दुविध में पड़ गये। वे सरहिन्द को नष्ट करना चाहते थे। इस पर बंदा सिंह ने तर्क रखा
हमें अभी शासन व्यवस्था के लिए कोई उचित स्थान चाहिए। इस बात को सुनकर कुछ सिंह आकी को गये।
उन का कहना था सरहिन्द को सुरक्षित रखना गुरू के शब्दों में मुंह मोड़ना है। इस पर बंदा सिंह से अपनी राजध्
ानी मुखलिस गढ़ को बनाने की घोषणा की। सरहिन्द से मिले ध्न को तीन सौ बैल गाड़ियों में लाद कर वहां
पहुंचाने का कार्य प्रारम्भ कर दिया गया। तद्पश्चात इस गढ़ी का नाम बदल कर लौहगढ़ कर दिया और इसका
आगामी युधो को ध्यान में रखते हुए आधुनिक सेना बनाने का कार्यक्रम बनाया।
7:05:00 pm

बन्दा सिंह बहादुर का बलिदान, ये वीर-गाथा क्यों नही पढ़ाते स्कूल में

बन्दा सिंह बहादुर का बलिदान, ये वीर-गाथा क्यों नही पढ़ाते स्कूल में

बन्दा सिंह बहादुर का जन्म 27 , 1670 को ग्राम तच्छल किला, पु॰छ में श्री रामदेव के घर में हुआ। उनका बचपन का नाम लक्ष्मणदास था। युवावस्था में शिकार खेलते समय उन्होंने एक गर्भवती हिरणी पर तीर चला दिया। इससे उसके पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया। यह देखकर उनका मन खिन्न हो गया। उन्होंने अपना नाम माधोदास रख लिया और घर छोड़कर तीर्थयात्रा पर चल दिये। अनेक साधुओं से योग साधना सीखी और फिर नान्देड़ में कुटिया बनाकर रहने लगे।
माधोदास ने श्री गुरु गोविन्द सिंह जी पर अपना जादू किया पर श्री गुरु गोविन्दसिंह जी पर इसका कोई असर न हुआ तब माधोदास ने  श्री गुरु गोविन्दसिंह जी की महिमा को जान लिया और नतमस्तक हो गया और विनती की कि मैं आपका बंदा बन चुका हूँ। आपकी प्रत्येक आज्ञा मेरे लिए अनुकरणीय है। फिर उसने कहा – मैं भटक गया था। अब मैं जान गया हूँ, मुझे जीवन चरित्रा से सन्त और कर्त्तव्य से सिपाही होना चाहिए। आपने मेरा मार्गदर्शन करके मुझे कृत्तार्थ किया है जिससे मैं अपना भविष्य उज्ज्वल करता हुआ अपनी प्रतिभा का परिचय दे पाउँगा।
श्री गुरु गोविन्द सिंह जी , माधे दास के जीवन में क्रान्ति देखकर प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे गुरूदीक्षा देकर अमृतपान कराया। जिससे माधेदास केशधरी सिंह बन गया। पाँच प्यारों ने माधेदास का नाम परिवर्तित करके गुरूबख्श सिंह रख दिया। परन्तु वह अपने आप को गुरू गोबिन्द सिंह जी का बन्दा ही कहलाता रहा। इसी लिए इतिहास में वह बंदा बहादुर के नाम से प्रसिध  हुआ।
श्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने  उसे पाँच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा देकर पंजाब के लिए रवाना के दिया रस्ते में उसने अपने दल का विस्तार करना सुरु कर दिया था और गुरु जी के साथ हुए अत्याचारों का बदलना लेने की लिए उत्सुक था दिहली के समीप सही खजाना लूटा और सेना को मजबूत किया ।
फिर बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब की ओर चल दिये।  उन्होंने  श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन का सिर काटा। फिर सरहिन्द के नवाब वजीरखान का वध किया। जिन हिन्दू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया था, बन्दा बहादुर ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। इससे चारों ओर उनके नाम की धूम मच गयी।
बाँदा बहादुर गुरु जी के छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब से बदला लेने के लिए उतावला था जेसा की गुरु जी के चारों पुत्र बलिदान हो चुके थे। बंदा सिंह बहादुर के पराक्रम से भयभीत मुगलों ने दस लाख फौज लेकर उन पर हमला किया और विश्वासघात से 17 दिसम्बर 1715 को उन्हें पकड़ लिया। उन्हें लोहे के एक पिंजड़े में बन्दकर, हाथी पर लादकर सड़क मार्ग से दिल्ली लाया गया। उनके साथ हजारों सिख भी कैद किये गये थे। इनमें बन्दा के वे 740 साथी भी थे, जो प्रारम्भ से ही उनके साथ थे। युद्ध में वीरगति पाए सिखों के सिर काटकर उन्हें भाले की नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया। रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा सिंह बहादुर का माँस नोचा जाता रहा।
काजियों ने बन्दा और उनके साथियों को मुसलमान बनने को कहा; पर सबने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया।
दिल्ली में आज जहाँ हार्डिंग लाइब्रेरी है,वहाँ 7 मार्च 1716 से प्रतिदिन सौ वीरों की हत्या की जाने लगी।
एक दरबारी मुहम्मद अमीन ने पूछा – तुमने ऐसे बुरे काम क्यों किये, जिससे तुम्हारी यह दुर्दशा हो रही है। बन्दा ने सीना फुलाकर सगर्व उत्तर दिया – मैं तो प्रजा के पीड़ितों को दण्ड देने के लिए परमपिता परमेश्वर के हाथ का शस्त्र था। क्या तुमने सुना नहीं कि जब संसार में दुष्टों की संख्या बढ़ जाती है, तो वह मेरे जैसे किसी सेवक को धरती पर भेजता है।
बन्दा से पूछा गया कि वे कैसी मौत मरना चाहते हैं ? बन्दा ने उत्तर दिया, मैं अब मौत से नहीं डरता
; क्योंकि यह शरीर ही दुःख का मूल है। यह सुनकर सब ओर सन्नाटा छा गया। भयभीत करने के लिए
उनके पाँच वर्षीय पुत्र अजय सिंह को उनकी गोद में लेटाकर बन्दा के हाथ में छुरा देकर उसको मारने
को कहा गया।
बन्दा ने इससे इन्कार कर दिया। इस पर जल्लाद ने उस बच्चे के दो टुकड़ेकर उसके दिल का माँस
बन्दा के मुँह में ठूँस दिया; पर वे तो इन सबसे ऊपर उठ चुके थे। गरम चिमटों से माँस नोचे जाने के कारण
उनके शरीर में केवल हड्डियाँ शेष थी। फिर भी आठ जून, 1716 को उस वीर को हाथी से कुचलवा दिया गया। इस प्रकार बन्दा सिंह बहादुर अपने नाम के तीनों शब्दों को सार्थक कर बलिपथ पर चल दिये।
3:01:00 pm

इस इस्लामिक देश में पिता अपनी गोद ली हुई बेटी से कर सकता है शादी

एक तरफ भारत में जहाँ महिलाओं के अधिकार के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ी जा रही है। वही अगर दुनियाभर खासकर इस्लामिक देशों में देखें तो पता लगता है कि, महिलाओं को लेकर अजीबो गरीब कानून है। आइये आज हम जानते है महिलाओ को लेकर इरान में महिलाओं के लिए बने एक अजीबो-गरीब कानून के बारे में

1:- ईरान में साल 2013 में एक ऐसा कानून पास हुआ, जिसके अनुसार कोई भी पिता अपनी गोद ली हुई बेटी से शादी कर सकता है। बस बेटी की उम्र कम से कम 13 साल होनी चाहिए। हालांकि, इस कानून का खूब विरोध भी हुआ था।

2:- यह कानून अपने आप में अजीब है, क्योकि ईरान में महिलाओ को पब्लिक के बीच पालतू कुत्तों को घुमाना प्रतिबंधित है। ऐसा करने पर उसे गिरफ्तार भी किया जा सकताहै।

2:55:00 pm

भारत के 10 रहस्यमय मंदिर, कोई नहीं जान पाया अब तक इनके राज

भारत के 10 रहस्यमय मंदिर, कोई नहीं जान पाया अब तक इनके राज


प्राचीनकाल में जब मंदिर बनाए जाते थे तो वास्तु और खगोल विज्ञान का ध्यान रखा जाता था। इसके अलावा राजा-महाराजा अपना खजाना छुपाकर इसके ऊपर मंदिर बना देते थे और खजाने तक पहुंचने के लिए अलग से रास्ते बनाते थे। इसके अलावा भारत में कुछ ऐसे मंदिर भी हैं जिनका संबंध न तो वास्तु से है, न खगोल विज्ञान से और न ही खजाने से इन मंदिरों का रहस्य आज तक कोई जान पाया है। ऐसे ही 10 मंदिरों के बारे में हमने आपके लिए जानकारी जुटाई है। भारत में वैसे तो हजारों रहस्यमय मंदिर हैं लेकिन यहां प्रस्तुत हैं कुछ खास 10 प्रसिद्ध रहस्यमय मंदिर की संक्षिप्त जानकारी जिसे जानकर आप हैरान रह जाएंगे। 1. करनी माता का मंदिर (Karni Mata Temple)::: करनी माता का यह रहस्यमय मंदिर जो बीकानेर (राजस्थान) में स्थित है, बहुत ही अनोखा मंदिर है। इस मंदिर में रहते हैं लगभग 20 हजार काले चूहे। लाखों की संख्या में पर्यटक और श्रद्धालु यहां अपनी मनोकामना पूरी करने आते हैं। करणी देवी, जिन्हें दुर्गा का अवतार माना जाता है, के मंदिर को ‘चूहों वाला मंदिर’ भी कहा जाता है। यहां चूहों को काबा कहते हैं और इन्हें बाकायदा भोजन कराया जाता है और इनकी सुरक्षा की जाती है। यहां इतने चूहे हैं कि आपको पांव घिसटकर चलना पड़ेगा। अगर एक चूहा भी आपके पैरों के नीचे आ गया तो अपशकुन माना जाता है। कहा जाता है कि एक चूहा भी आपके पैर के ऊपर से होकर गुजर गया तो आप पर देवी की कृपा हो गई समझो और यदि आपने सफेद चूहा देख लिया तो आपकी मनोकामना पूर्ण हुई समझो। 2. कन्याकुमारी देवी मंदिर, (Kanyakumari Devi Temple)::: कन्याकुमारी प्वांइट को इंडिया का सबसे निचला हिस्सा माना जा है। यहां समुद्र तट पर ही कुमारी देवी का रहस्यमय मंदिर है। यहां मां पार्वती के कन्या रूप को पूजा जाता है। यह देश में एकमात्र ऐसी जगह है जहां मंदिर में प्रवेश करने के लिए पुरूषों को कमर से ऊपर के क्लॉथ्स उतारने होंगे। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इस स्थान पर देवी का विवाह संपन्न न हाे पाने के कारण बचे हुए दाल-चावन बाद में कंकड़-पत्थर बन गए। कहा जाता है इसलिए ही कन्याकुमारी के बीच या रेत में दाल और चावल के रंग-रूप वाले कंकड़ बहुत मिलते हैं। आश्चर्य भरा सवाल तो यह भी है कि ये कंकड़-पत्थर दाल या चावल के आकार जितने ही देखे जा सकते हैं। प्राकृतिक सौंदर्य : यदि आप मंदिर दर्शन को गए हैं तो यहां सूर्योदय और सूर्यास्त भी देखें। कन्याकुमारी अपने ‘सनराइज’ दृश्य के लिए काफी प्रसिद्ध है। सुबह हर विश्रामालय की छत पर टूरिस्टों की भारी भीड़ सूरज की अगवानी के लिए जमा हो जाती है। शाम को अरब सागर में डूबते सूरज को देखना भी यादगार होता है। उत्तर की ओर करीब 2-3 किलोमीटर दूर एक सनसेट प्वॉइंट भी यहां है। 

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