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गुरुवार, 1 सितंबर 2016

छप्पड़ चीरी का ऐतिहासिक युध

छप्पड़ चीरी का ऐतिहासिक युध


सरहिन्द के सुबेदार वजी़द खान को सूचना मिली कि बंदा सिंह के नेतृत्व मे दल खालसा और माझा
क्षेत्रा का सिंघो का काफला आपस मे छप्पड़ चीरी नामक गांव में मिलने मे सफल हो गया है और वे सरहिन्द
की ओर आगे बढने वाले हैं। तो वह अपने नगर की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए, सिक्खों से लोहा लेने अपना
सैन्य बल लेकर छप्पड़ चीरी की ओर बढने लगा। दल खालसा ने वही मोर्चा बंदी प्रारम्भ कर दी। वज़ीद खान
की सेना ने आगे हाथी, उस के पीछे ऊंट, फिर घोड़ सवार और उस के पीछे तोपे व प्यादे ;सिपाहीद्ध। अंत मे
हैदरी झंडे के नीचे, गाज़ी जेहाद का नारा लगाते हुए चले आ रहे थे अनुमानतः इन सब की संख्या एक लाख
के लगभग थी। सरहिन्द नगर की छप्पड चीरी गांव से दूरी लगभग 20 मील है।
इध्र दल खालसा के सेनानायक जत्थेदार बंदा सिंह बहादुर ने अपनी सेना का पुनर्गठन कर के अपने
सहायक फतेह सिंह, कर्म सिंह, र्ध्म सिंह और आली सिंह को मालवा क्षेत्रा की सेना को विभाजित कर के उपसेना
नायक बनाया। माझा क्षेत्रा के सेना को विनोद सिंह और बाज सिंह की अध्यक्ष्ता मे ं मोर्चा बंदी करवा दी। एक
विशेष सैनिक टुकड़ी ;पलटनद्ध अपने पास संकट काल के लिए इन्दर सिंह की अध्यक्षता मे सुरक्षित रख ली
और स्वयं एक टीले ;टेकरीद्ध पर विराज कर यु( को प्रत्यक्ष दूरबीन से देखकर उचित निर्णय लेकर आदेश देने
लगे। दल खालसा के पास जो छः छोटे आकार की तोपे थी उन को भूमिगत मोर्चाे मंे स्थित कर के शाहबाज
सिंह को तोपखाने का सरदार नियुक्त किया। इन तोपों को चलाने के लिए बुंदेलखण्ड के विशेषज्ञ व्यक्तियों को
कार्यभार सौंपा गया। तोपचियों का मुख्य लक्ष्य, शत्राु सेना की तोपों को खदेड़ना और हाथियों को आगें न बढ़ने
देने का दिया गया, सब से पीछे नवसीखियें जवान रखे गये और उस के पीछे सुच्चा नंद के भतीजे गंडा मल
के एक हज़ार जवान थे ।
सूर्य की पहली किरण ध्रती पर पड़ते ही यु( प्रारम्भ हो गया। शाही सेना नाअरा-ए-तकबीर-
अल्लाह हू अकबर के नारे बुलंद करते हुए सिंघों के मोंर्चो पर टूट पडी़। दूसरी ओर से दल खालसा ने उत्तर में
फ्बोले सो निहाल, सत श्री अकालय् जय घोष कर के उत्तर दिया और छोटी तोंपों के मुंह खोल दिये। यह तोपे
भूमिगत अदृश्य मोर्चो में थी अंत इनकी मार ने शाही सेना की अगली पंक्ति उडा़ दी। बस फिर क्या था शाही
सेना भी अपनी असंख्य बडी़ तोपो का प्रयोग करने लगी। दल खालसा वृक्षों की आड़ में हो गया। जैसे ही शत्राु
सेना की तोपों की स्थिति स्पष्ट हुई शाहबाज सिंह के तोपचियों ने अपने अचूक निशानों से शत्राु सेना की तोपों
का सदा के लिए शांत करने का अभियान प्रारम्भ कर दिया जल्दी ही गोला-बारी बहुत ध्ीमी पड़ गई। क्योंकि
शत्राु सेना के तोपची अध्किांश मारे जा चुके थे। अब मुग़ल सेना ने हाथियों की कतार को सामने किया परन्तु
दल खालसा ने अपनी निधर््ारित नीति के अंतर्गत वही स्थिति रख कर हाथियों पर तोप के गोले बरसाए इस से
हाथियों में भगदड़ मच गई। इस बात का लाभ उठाते हुए घोड़ सवार सिंह शत्राु खेमे में घुसने में सफल हो गये
और हाथियों की कतार टूट गई। बस फिर क्या था? सिंघों ने लम्बे समय से हृदय में प्रतिशोध् की भावना जो
पाल रखी थी, उस अग्नि को ज्वाला बनाकर शत्राु पर टूट पडे़ घमासान का यु( हुआ। शाहीसेना केवल संख्या
के बल पर विजय की आशा लेकर लड़ रही थी, उन में से कोई भी मरना नहीं चाहता था जबकि दल खालसा
विजय अथवा शहीदी में से केवल एक की कामना रखते थे, अतः जल्दी ही मुग़ल फौजें केवल बचाव की लडाई
लड़ने लगे। देखते ही देखते शवों के चारों ओर ढेर दिखाई देने लगे। चारों तरफ मारो-मारो की आवाजें ही आ
रही थी। घायल जवान पानी-पानी चिल्ला रहे थे और दो घण्टों की गर्मी ने रणक्षेत्रा तपा दिया था। जैसे-जैसे
दोपहर होती गई जहादियों का दम टूटने लगा उन्हें जेहाद का नारा धेखा लगने लगा, इस प्रकार गा़जी ध्ीरे-ध्
ीरे पीछे खिसकने लगे। वह इतने हताश हुए कि मध्य दोपहरी तक सभी भाग खडे़ हुए। दल खालसे का मनोबल
बहुत उच्च स्तर पर था। वे मरना तो जानते थे, पीछे हटना नहीं। तभी गदद्ार सुच्चानंद के भतीजे गंडामल ने
जब खालसा दल मुग़लों पर भारी पड़ रहा था, तो अपने साथियों के साथ भागना शुरू कर दिया। इस से सिंघों
के पैर उखड़ने लगे क्योंकि कुछ नौसिखिए सैनिक भी गर्मी की परेशानी न झेलते हुए पीछे हटने लगे। यह
देखकर मुग़ल फौजियों की बाछें खिल उठी। इस समय अबदुल रहमान ने वजीद खान को सूचना भेजी फ्गंडामल
ब्रह्माण ने अपना इकरार पूरा कर दिखाया है, जहांपनाय्। इस पर वजीद खान ठहका मार के हंसा और कहने
लगा,फ्अब मरदूद बंदे की कुमक क्या करती है, बस देखना तो यहीं है। अब देरी न करो बाकी फौज भी
मैदान-ए-जंग में भेंज दो, इन्शा-अल्ला जीत हमारी ही होगी ।य्
दूसरी तरफ जत्थेदार बंदा सिंह और उसके संकट कालीन साथी अजीत सिंह यह दृश्य देख रहे थे।
अजीत सिंह ने आज्ञा मांगी फ्गंडामल और उस के सवारों को गद्दारी का इनाम दिया जायेय्। परन्तु बंदा सिंह
हंसकर कहने लगा फ्मैं यह पहले से ही जानता था खैर………..अब आप ताजा दम संकट कुमक लेकर विकट
परिस्थिियों में पडे़ सैनिकों का स्थान लोय् ।
अजीत सिंह तुरन्त आदेश का पालन करता हुआ वहां पहंुचा जहां सिंघों को कुछ पीछे हटना पड़ गया
था। फिर से घमासान यु( प्रारम्भ हो गया। मुग़लो की आशा के विपरीत सिंघों की ताजा दम कुमक ने रणक्षेत्रा
का पासा ही मोड़ दिया। सिंह फिर से आगे बढ़ने लगे। इस प्रकार यु( लड़ते हुए दोपहर ढलने लगी। जो मुग़ल
कुछ ही देर में अपनी जीत के अंदाजे लगा रहे थे। वह भूख-प्यास के मारे पीछे हटने लगे किन्तंु वह भी जानते
थे कि इस बार की हार उनके हाथ से सरहिन्द तो जायेगा हीऋ साथ में मृत्यु भी निश्चित ही है। अतः वह अपना
अंतिम दाव भी लगाना चाहते थे। इस बार वजीद खान ने अपना सभी कुछ दाव पर लगाकर फौज को ललकारा
और कहा -फ्चलो गा़जियों आगे बढ़ो और काफ़िरों को मार कर इस्लाम पर मंडरा रहे खतरे को हमेशा के लिए
खत्म कर दो। इस हल्ला शेरी से यु( एक बार फिर भड़क उठा। इस बार उपसेना नायक बाज सिंह, जत्थेदार
बंदा सिंह के पास पहुंचा और उसने बार-बार स्थिति पलटने की बात बताई। इस बार बंदा सिंह स्वयं उठा और
शेष संकट कालीन सेना लेकर यु( भूमि मे उतर गया। उसे देखकर दल खालसा में नई स्फूर्ति आ गई। फिर
से घमासान यु( होने लगा। इस समय सूर्यास्त होने में एक घण्टा शेष था। उपनायक बाज सिंह व फतेह सिंह
ने वजीद खान के हाथी को घेर लिया। सभी जानते थे कि यु( का परिणाम आखरी दाव में छिपा हुआ है, अतः
दोनांे ओर के सैनिक कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। सभी सैनिक एक-दूसरे से गुथम-गुथा होकर विजयी
होने की चाहत रखते थे।
ऐसे में बंदा सिंह ने अपने गुरूदेव श्री गुरू गोबिंद सिंह जी प्रदान वह बाण निकाला जो उसे संकट काल
सें प्रयोग करने के लिए दिया गया था। गुरूदेव जी ने उसे बताया था, वह बाण आत्मबल का प्रतीक है। इस के
प्रयोग पर समस्त अदृश्य शक्तियां तुम्हारी सहायता करेगी।
ऐसा ही हुआ देखते ही देखते वजीद खान मारा गया और शत्राु सेना के कुछ ही क्षणों में पैर उखड़ गये
और वे भागने लगे। इस समय का सिंहों ने भरपूर लाभ उठाया, उन्होंने तुरन्त मलेरकोटला के नवाब शेर मुहम्मद
खान तथा ख्वाजा अली को घेर लिया वे अकेले पड़ गये थे। उनकी सेना भागने में ही अपना भला समझ रही
थी। इन दोनों को भी बाज सिंह व फतेह सिंह ने रणभूमि में मुकाबले में मार गिराया। इनके मरते ही समस्त मुग़ल
सेना जान बचाती हुई सरहिन्द की ओर भाग गई। सिंघो ने उनका पीछा किया किन्तु जत्थेदार ने उन्हें तुरन्त
वापस आने का आदेश भेजा। उन का विचार था कि हमें समय की नजा़कत को ध्यान मे रखते हुए अपने घायलों
की सेवा पहले करनी चाहिए। उसके बाद जीते हुए सैनिकों की सामग्री कब्जे में लेना चाहिए। इस के बाद शहीदों
को सैनिक सम्मान के साथ अंतिम संस्कार उनकी रीति अनुसार करने चाहिए।
यह ऐतिहासिक विजय 12 मई सन् 1710 को दल खालसे को प्राप्त हुई। इस समय दल की कुल संख्या
70 हजार के लगभग थी। इस यु( में 30 हजार सिंह काम आये और लगभग 20 हजार घायल हुए। लगभग
यही स्थिति शत्राु पक्ष की भी थी। उनके गा़जी अध्किांश भाग गये थे। यु( सामग्री में सिंघांे को 45 बडी़ तोपे,
हाथी, घोडे़ व बंदूके बडी़ संख्या मे प्राप्त हुई ।
नवसिखिये सैनिक जो भाग गये थे। उनमें से अध्किांश लौट आये और जत्थेदार से क्षमा मांग कर दल
में पुनः सम्मिलित हो गये। जत्थेदार बंदा सिंह ने खालसे-दल का जल्दी से पुनर्गठन किया और सभी को सम्बोध्
न कर के कुछ आदेश सुनाये:-
1़ कोई भी सैनिक किसी निर्दोष व्यक्ति को पीड़ित नहीं करेगा ।
2. कोई भी महिला अथवा बच्चों पर अत्याचार व शोषण नहीं करेगा। केवल दुष्ट का दमन करना है और
गरीब की रक्षा करनी है। इसलिए किसी की धर्मिक भवन को क्षति नहीं पहुचानी है।
3. हमारा केवल लक्ष्य अपराध्यिों को दण्डित करना तथा दल खालसा को सुदृढ करने के लिए यथाशक्ति
उपाय है।
14 मई को दल खालसे ने सरहिन्द नगर पर आक्रमण कर दिया। उन्हांेने सूबे वजीद खान का शव साथ
में लिया और उस का प्रदर्शन करने लगे। इस बीच बजीद खान का बेटा समंुद खान सपरिवार बहुत सा ध्न लेकर
दिल्ली भाग गया। उसे देखते हुए नगर के कई अमीरों ने ऐसा ही किया क्योकि उन्हें ज्ञात था कि शत्राु सेना के
साथ अब मुकाबला हो नहीं सकता। अतः भागने में ही भलाई है। जन साधरण भी जानते थे कि दल खालसा
अब अवश्य ही सरहिन्द पर कब्जा करेगा।
उस समय फिर रक्तपात होना ही है अतः कुछ दिन के लिए नगर छोड़ जाने में ही भलाई है। इस प्रकार
दल खालसे के सरहिन्द पहुंचने से पहले ही नगर में भागम भाग हो रही थी। दल खालसा को सरहिन्द में प्रवेश
करने में एक छोटी सी झड़प करनी पड़ी। बस फिर आगे का मैदान साफ था। सिंघों ने वजीद खान का शव सरहिन्द
के किले के बाहर एक वृक्ष पर उल्टा लटका दिया, उसमें बदबू पड़ चुकी थी। अतः शव को पक्षी नौचने लगे।
किले में बची-खुची सेना आकी होकर बैठी थी। स्वाभाविक था वे करते भी क्या? उनके पास कोई चारा नही
था। दल खालसा ने हथियाई हुई तोपों से किले पर गोले दागे, घण्टे भर के प्रयत्न से किले में प्रवेश का मार्ग
बनाने में सफल हो गये। फिर हुई हाथों-हाथ शाही सैनिकों से लडा़ई। बंदा सिंह ने कह दिया फ्अडे़ सो झडे़, शरण
पडे़ सो नरेय् के महा वाक्य अनुसार दल खालसा को कार्य करना चाहिए। इस प्रकार बहुत से मुग़ल सिपाही मारे
गये। जिन्होने हथियार फैंक कर दल खालसा से पराजय स्वीकार कर लीऋ उनको यु( बन्दी बना लिया गया।
दल खालसा के सेना नायक बंदा सिंह ने विजय की घोषणा की और अपराध्यिों का चयन करने को
कहा। जिससे उन्हें उचित दण्ड़ दिया जा सके परन्तु कुछ सिंघो का मत था कि यह नगर गुरू शापित है अतः
इसे हमें नष्ट करना है। किन्तु बंदा सिंह इस बात पर सहमत नहीं हुआ। उनका कहना था कि इस प्रकार निर्दोष
लोग भी बिना कारण बहुत दुख झेलेगें जो कि खालसा दल अथवा गुरू मर्यादा के विरू( है। बंदा सिंह की बात
में दम था अतः सिंह दुविध में पड़ गये। वे सरहिन्द को नष्ट करना चाहते थे। इस पर बंदा सिंह ने तर्क रखा
हमें अभी शासन व्यवस्था के लिए कोई उचित स्थान चाहिए। इस बात को सुनकर कुछ सिंह आकी को गये।
उन का कहना था सरहिन्द को सुरक्षित रखना गुरू के शब्दों में मुंह मोड़ना है। इस पर बंदा सिंह से अपनी राजध्
ानी मुखलिस गढ़ को बनाने की घोषणा की। सरहिन्द से मिले ध्न को तीन सौ बैल गाड़ियों में लाद कर वहां
पहुंचाने का कार्य प्रारम्भ कर दिया गया। तद्पश्चात इस गढ़ी का नाम बदल कर लौहगढ़ कर दिया और इसका
आगामी युधो को ध्यान में रखते हुए आधुनिक सेना बनाने का कार्यक्रम बनाया।

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