हमेशा संडे को ही छुट्टी क्यों होती है, इसके पीछे छिपी हुई है बहुत बड़ी कहानी
हमेशा संडे को ही छुट्टी क्यों होती है, इसके पीछे छिपी हुई है बहुत बड़ी कहानी
संडे का इंतजार हर किसी को रहता है क्योंकि यही वो दिन होता है जिसमें हफ्ते भर के काम निपटाने होते हैं और परिवार और दोस्तों के साथ थोड़ा वक्त बिताने का समय मिल जाता है लेकिन ये संडे की छुट्टी हमें यूं ही नहीं मिल गई थी इसके पीछे किसी का संघर्ष जुड़ा हुआ है।
यार संडे को चलते हैं न घूमने। संडे को करते हैं पार्टी। पक्का भाग्यवान इस संडे को काम पूरा कर दूंगा। इस संडे तो कहीं नहीं जा रहा, पूरा दिन आराम करुंगा। उफ्फ, एक संडे और इतने काम।
हांजी हो भी क्यों न, आखिर संडे को छुट्टी जो मिलती है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि हमारे लिए संडे की छुट्टी कराने वाले कौन थे। किस लिए संडे की छुट्टी दिलाई गई थी। संडे की छुट्टी कोई एक दिन में घोषित नहीं हो गई थी। इसके लिए बकायदा आठ साल तक लम्बी लड़ाई लड़ी गई थी। तब कहीं जाकर अंग्रेज अफसरों ने संडे की छुट्टी घोषित की थी। और इस आंदोलन के अगुआ थे नारायण मेघाजी लोखंडे।
बात अंग्रेजी शासनकाल की है। कपड़ा और दूसरे तरह की मिलों में भारतीय मजदूरों की बड़ी संख्या थी। लेकिन उन भारतीय मजदूरों की आवाज उठाने वाला कोई नहीं था। इसी दौरान नारायण मेघाजी लोखंडे मजदूरों के हक में आवाज उठाई।
कहा जाता है कि लोखंडे ही वो श्ख्स थे जिन्होंने मिल मजदूरों के हक में पहली बार आवाज उठाई थी। लोखंडे को श्रम आंदोलन का जनक भी कहा जाता है। भारत में ट्रेड यूनियन का पिता भी कहा जाता है। आंदोलन में ज्योतिबाफुले का साथ भी लोखंडे को मिला था। वर्ष 1881 में लोखंडे ने मिल मजदूरों के लिए संडे की छुट्टी करने की मांग रखी। लेकिन अंग्रेज अफसर इसके लिए तैयार नहीं हुए।
संडे की छुट्टी के संबंध में लोखंडे का तर्क था कि सप्ताह के सात दिन मजदूर काम करते हैं, लिहाजा उन्हें सप्ताह में एक छुट्टी भी मिलनी चाहिए। संडे की छुट्टी लेना इतना आसान नहीं था, लिहाजा लोखंडे को इसके लिए एक आंदोलन छेड़ना पड़ा।
आंदोलन वर्ष 1881 से लेकर 1889 तक चला। इतना ही नहीं लोखंडे ने मजदूरों के हक में इन मांग को भी अंग्रेज अफसरों के सामने उठाया था। दोपहर में आधा घंटे का खाने के लिए अवकाश, हर महीने की 15 तारीख तक वेतन मजदूरों को मिल जाए और काम के घंटे तय हो जाएं।
मौजूद दस्तावेजों की मानें तो मजदूरों के लिए लोखंडे ने संडे की छुट्टी पिकनिक मनाने या पत्नी के बताए घर के तमाम काम पूरा करने के लिए नहीं मांगी थी। छुट्टी लेने के पीछे उनका तर्क था कि सप्ताह के सात दिन मजदूर अपने परिवार के लिए काम करते हैं। एक दिन देश और समाज के लिए भी होना चाहिए। जिससे वो देश और समाज हित में भी काम कर सकें।
संडे का इंतजार हर किसी को रहता है क्योंकि यही वो दिन होता है जिसमें हफ्ते भर के काम निपटाने होते हैं और परिवार और दोस्तों के साथ थोड़ा वक्त बिताने का समय मिल जाता है लेकिन ये संडे की छुट्टी हमें यूं ही नहीं मिल गई थी इसके पीछे किसी का संघर्ष जुड़ा हुआ है।
यार संडे को चलते हैं न घूमने। संडे को करते हैं पार्टी। पक्का भाग्यवान इस संडे को काम पूरा कर दूंगा। इस संडे तो कहीं नहीं जा रहा, पूरा दिन आराम करुंगा। उफ्फ, एक संडे और इतने काम।
हांजी हो भी क्यों न, आखिर संडे को छुट्टी जो मिलती है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि हमारे लिए संडे की छुट्टी कराने वाले कौन थे। किस लिए संडे की छुट्टी दिलाई गई थी। संडे की छुट्टी कोई एक दिन में घोषित नहीं हो गई थी। इसके लिए बकायदा आठ साल तक लम्बी लड़ाई लड़ी गई थी। तब कहीं जाकर अंग्रेज अफसरों ने संडे की छुट्टी घोषित की थी। और इस आंदोलन के अगुआ थे नारायण मेघाजी लोखंडे।
बात अंग्रेजी शासनकाल की है। कपड़ा और दूसरे तरह की मिलों में भारतीय मजदूरों की बड़ी संख्या थी। लेकिन उन भारतीय मजदूरों की आवाज उठाने वाला कोई नहीं था। इसी दौरान नारायण मेघाजी लोखंडे मजदूरों के हक में आवाज उठाई।
कहा जाता है कि लोखंडे ही वो श्ख्स थे जिन्होंने मिल मजदूरों के हक में पहली बार आवाज उठाई थी। लोखंडे को श्रम आंदोलन का जनक भी कहा जाता है। भारत में ट्रेड यूनियन का पिता भी कहा जाता है। आंदोलन में ज्योतिबाफुले का साथ भी लोखंडे को मिला था। वर्ष 1881 में लोखंडे ने मिल मजदूरों के लिए संडे की छुट्टी करने की मांग रखी। लेकिन अंग्रेज अफसर इसके लिए तैयार नहीं हुए।
संडे की छुट्टी के संबंध में लोखंडे का तर्क था कि सप्ताह के सात दिन मजदूर काम करते हैं, लिहाजा उन्हें सप्ताह में एक छुट्टी भी मिलनी चाहिए। संडे की छुट्टी लेना इतना आसान नहीं था, लिहाजा लोखंडे को इसके लिए एक आंदोलन छेड़ना पड़ा।
आंदोलन वर्ष 1881 से लेकर 1889 तक चला। इतना ही नहीं लोखंडे ने मजदूरों के हक में इन मांग को भी अंग्रेज अफसरों के सामने उठाया था। दोपहर में आधा घंटे का खाने के लिए अवकाश, हर महीने की 15 तारीख तक वेतन मजदूरों को मिल जाए और काम के घंटे तय हो जाएं।
मौजूद दस्तावेजों की मानें तो मजदूरों के लिए लोखंडे ने संडे की छुट्टी पिकनिक मनाने या पत्नी के बताए घर के तमाम काम पूरा करने के लिए नहीं मांगी थी। छुट्टी लेने के पीछे उनका तर्क था कि सप्ताह के सात दिन मजदूर अपने परिवार के लिए काम करते हैं। एक दिन देश और समाज के लिए भी होना चाहिए। जिससे वो देश और समाज हित में भी काम कर सकें।
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